उदयपुर,(ARLive news)। मानसून शुरू होने के साथ ही उदयपुर में पौधरोपण अभियान स्तर पर शुरू हो जाएगा। लेकिन कई बार हम ऐसे पौधे भी रोप देते हैं, जिनकी सर्वाइवल रेट यहां की मिट्टी में कम होती है। ऐसे में इस बार हम संकल्प करें कि मेवाड़, उदयपुर की विरासत को सहेजे और इसका हिस्सा बने पेड़-पौधों को बचाएं और उसी के अनुरूप पौधरोपण करें।
राजस्थान वन्यजीव सलाहकार मंडल के पूर्व सदस्य प्रकृति विद रजा एच तहसीन ने बताया कि सिर्फ पुराने भवन ही नहीं, पेड़ पौधे, जीव-जंतु भी हमारी विरासत का हिस्सा हैं। ये हमारे समग्र पारिस्थितिक तंत्र के लिए जरूरी भी हैं। क्षेत्र-विशेष के अनुकूल हो चुके पौधे लगाने से मिट्टी एवं जलवायु की स्थानीयता के कारण पौधों का सर्वाइवल रेट बढ़ जाता है। इसके साथ ही कीटदृपतंगों से लेकर पशुदृपक्षियों एवं जलीयदृजीवों तक को आवास एवं भोजन मिलने से सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तन्त्र पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
तहसीन ने उदयपुर में हरियल पक्षियों का उदाहरण दिया जो कि कोर्ट के आसपास के पेड़ों पर बहुतायत से पाए जाते थेए किन्तु उन फलदार पेड़ों के कटने के बाद अब नज़र नहीं आते। कई कीट-पतंगों की प्रजातियाँ समाप्त हो गईं, जिन्हें रिकॉर्ड भी नहीं किया जा सका। विकास की प्रक्रिया में स्थानीय प्रजातियों के पेड़-पौधों को नष्ट करने और फिर एक ही तरह का पौधरोपण जैसे कि यूक्लिप्टस या नीम अधिक करने से क्षेत्र के सम्पूर्ण जीव-संसार पर नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं।
तहसीन ने जिला प्रशासन, वन विभाग सहित स्वयं सेवी संस्थाओं और लोगों से अपील की है कि वे अगर पौधरोपण करते हैं तो स्थानीय पौधे लगाएं। झीलों में विकसित किए जा रहे टापुओं पर देसी बबूलए चनबोरए बाँस आदि के पौधरोपण से मिट्टी का कटाव रुकने के साथ ही छोटेदृबड़े पक्षियों और उभयचर जीवों को आवास मिलेगा।
उदयपुर की मिट्टी में प्रजातियों का करें पौधेरोपण
पेड़ : देसी बबूल, काल्या सरस, टीमरू, गूलर, जामुन, बेर, कीकर, देसी आम, महुआ, गोन्दा/लसोड़ा (बड़ा और छोटा), बील, कोटबड़ी, इमली, खटमिठ (बड़ी और छोटी), बिजोरा, करना, आँवला, मोलसरी, रायन, करंज, रूँझा, खेर, कड़ाया, पीपल, बरगद/बड़ इत्यादि।
झाड़ी : चनबोर, करौंदा इत्यादि।
कैक्टस : थापड़िया थोर (ख़ासकर बाड़ बनाने के लिए) इत्यादि।
घास : बाँस इत्यादि।
बेल : किंकोड़ा इत्यादि।
पानी की वनस्पति : कमल, सिंघाड़ा, जलीय घास इत्यादि।